संत रैदास की अनूठी भक्ति एवं सिद्धि

ललित गर्ग 
महामना संत रैदास भारतीय संत परम्परा और संत-साहित्य के महान् हस्ताक्षर है, दुनियाभर के संत-महात्माओं में उनका विशिष्ट स्थान है। क्योंकि उन्होंने कभी धन के बदले आत्मा की आवाज को नहीं बदला तथा शक्ति और पुरुषार्थ के स्थान पर कभी संकीर्णता और अकर्मण्यता को नहीं अपनाया। ऐसा इसलिये संभव हुआ क्योंकि रैदास अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक भी थे। वे निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान को चरितार्थ करते हुए सद्भावना और प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया। मन चंगा तो कठौती में गंगा, यह संत शिरोमणि रैदासजी के द्वारा कहा गया अमर सूक्ति भक्ति दोहा है। जिसमें उनकी गंगा भक्ति को सरलता से समझा जा सकता है। हिंदू धर्म के अनुसार कोई भी इंसान जात-पांत से बड़ा या छोटा नहीं होता। अपितु मन, वचन और कर्म से बड़ा या छोटा होता हैं। संत शिरोमणि रैदासजी जात से तो मोची थे, लेकिन मन, कर्म और वचन से संत थे। उनके भक्त रैदासी कहलाते हैं।
सद्गुरु स्वामी रामानन्दजी के बारह शिष्यों में से एक रैदासजी के जीवन में गंगा भक्ति से जुड़े अनेक घटना एवं प्रसंग है। जिनसे स्पष्ट होता है कि उनके जीवन निर्माण, उनकी भक्ति, उनकी धर्म-साधना, उनकी कर्म-साधना एवं साहित्य साधना में गंगा का अलौकिक एवं अनूठा महत्व एवं प्रभाव रहा है। संत कवि रैदास कबीरदास के गुरु भाई थे। गुरु भाई अर्थात् दोनों के गुरु स्वामी रामानंदजी थे। संत रैदास का जन्म लगभग 600 वर्ष पूर्व माघ पूर्णिमा के दिन काशी में हुआ था। मोची कुल में जन्म लेने के कारण जूते बनाना उनका पैतृक व्यवसाय था और इस व्यवसाय को ही उन्होंने भक्ति-साधना एवं ध्यान विधि बना डाला। कार्य कैसा भी हो, यदि आप उसे ही परमात्मा का ध्यान बना लें तो मोक्ष सरल हो जाता है। रैदासजी अपना काम पूरी निष्ठा और ध्यान से करते थे। इस कार्य में उन्हें इतना आनंद आता था कि वे मूल्य लिए बिना ही जूते लोगों को भेंट कर देते थे। रैदासजी के उच्च आदर्श और उनकी वाणी, भक्ति एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानियों, साधुओं-महात्मा तथा विद्वज्जनों ने उनको सम्मान दिया है। वे मीरा बाई के गुरु भी थे। रैदासजी श्रीराम और श्रीकृष्ण भक्त परंपरा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई धुनों में भजन भी बनाए गए हैं। जैसे, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी- इस प्रसिद्ध भजन को सभी जानते हैं।
महान संत, समाज सुधारक, साधक और कवि रैदास ने जीवनपर्यन्त छुआछूत, ऊंच-नीच, जातिवाद जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और उन कुरीतियों के खिलाफ निरन्तर कार्य करते रहे। समस्त भारतीय समाज को भेदभाव से ऊपर उठकर मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले 15वीं सदी के महान समाज सुधारक संत रैदासजी को जो चेतना प्राप्त हुई, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्हें जो साधना मिली, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही उनका जीवन-धर्म रहा है। वही उनका संतत्व रहा। वे उसे चादर की भाँति ओढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वह बीज की भाँति उनके अंतस्तल से अंकुरित होता रहा है। उनका जन्म ऐसे विकट समय में हुआ था, जब समाज में घोर अंधविश्वास, कुप्रथाओं, अन्याय और अत्याचार का बोलबाला था, धार्मिक कट्टरपंथता चरम पर थी, मानवता कराह रही थी। उस जमाने में मध्यमवर्गीय समाज के लोग कथित निम्न जातियों के लोगों का शोषण किया करते थे। ऐसे विकट समय में समाज सुधार की बात करना तो दूर की बात, उसके बारे में सोचना भी मुश्किल था लेकिन जूते बनाने का कार्य करने वाले संत रैदास ने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए समाधि, ध्यान और योग के मार्ग को अपनाते हुए असीम ज्ञान प्राप्त किया और अपने इसी ज्ञान के जरिये पीड़ित मानवता, समाज एवं दीन-दुखियों की सेवा कार्य में जुट गए। उन्होंने अपनी सिद्धियों के जरिये समाज में व्याप्त आडम्बरों, अज्ञानता, झूठ, मक्कारी और अधार्मिकता का भंडाफोड़ करते हुए समाज को जागृत करने और नई दिशा देने का प्रयास किया।
‘रैदास’ के नाम से चर्चित इस अलौकिक संत चेतना का मूल नाम रविदास है। जूते बनाने के कार्य से उन्हें जो भी कमाई होती, उससे वे संतों की सेवा किया करते और उसके बाद जो कुछ बचता, उसी से परिवार का निर्वाह करते थे। एक दिन रैदास जूते बनाने में व्यस्त थे कि तभी उनके पास एक ब्राह्मण आया और उनसे कहा कि मेरे जूते टूट गए हैं, इन्हें ठीक कर दो। रैदास उनके जूते ठीक करने लगे और उसी दौरान उन्होंने ब्राह्मण से पूछ लिया कि वे कहां जा रहे हैं? ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं पर चमड़े का काम करने वाले तुम क्या जानो कि इससे कितना पुण्य मिलता है?’’ इस पर रैदास ने कहा कि आप सही कह रहे हैं ब्राह्मण देवता! हम नीच और मलिन लोगों के गंगा स्नान करने से गंगा अपवित्र हो जाएगी। जूते ठीक होने के बाद ब्राह्मण ने उसके बदले उन्हें एक कौड़ी मूल्य देने का प्रयास किया तो संत रैदास ने कहा कि इस कौड़ी को आप मेरी ओर से गंगा मैया को ‘रविदास की भेंट’ कहकर अर्पित कर देना।
ब्राह्मण गंगाजी पहुंचा और स्नान करने के पश्चात् जैसे ही उसने रैदास द्वारा दी गई मुद्रा यह कहते हुए गंगा में अर्पित करने का प्रयास किया कि गंगा मैया रैदास की यह भेंट स्वीकार करो, तभी जल में से स्वयं गंगा मैया ने अपना हाथ निकालकर ब्राह्मण से वह मुद्रा ले ली और मुद्रा के बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन देते हुए वह कंगन रैदास को देने का कहा। सोने का रत्नजड़ित अत्यंत सुंदर कंगन देखकर ब्राह्मण के मन में लालच आ गया और उसने विचार किया कि घर पहुंचकर वह यह कंगन अपनी पत्नी को देगा, जिसे पाकर वह बेहद खुश हो जाएगी। पत्नी ने जब वह कंगन देखा तो उसने सुझाव दिया कि क्यों न रत्नजड़ित यह कंगन राजा को भेंट कर दिया जाये, जिसके बदले वे प्रसन्न होकर हमें मालामाल कर देंगे। पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण राजदरबार पहुंचा और कंगन राजा को भेंट किया तो राजा ने ढ़ेर सारी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी। राजा ने प्रेमपूर्वक वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में पहनाया तो महारानी इतना सुंदर कंगन पाकर इतनी खुश हुई कि उसने राजा से दूसरे हाथ के लिए भी वैसे ही कंगन की मांग की।
राजा ने ब्राह्मण से वैसा ही एक और कंगन लाने का आदेश देते हुए कहा कि अगर उसने तीन दिन में कंगन लाकर नहीं दिया तो वह दंड का पात्र बनेगा। राजाज्ञा सुनकर बेचारे ब्राह्मण के होश उड़ गए। ब्राह्मण रैदास के पास पहुंचा और उन्हें सारे वृत्तांत की विस्तृत जानकारी दी। रैदासजी ने उनसे नाराज हुए बगैर कहा कि तुमने मन के लालच के कारण कंगन अपने पास रख लिया, इसका पछतावा मत करो। रही बात राजा को देने के लिए दूसरे कंगन की तो तुम उसकी चिंता भी मत करो, गंगा मैया तुम्हारे मान-सम्मान की रक्षा करेंगी। यह कहते हुए उन्होंने अपनी वह कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरा पात्र) उठाई, जिसमें पानी भरा हुआ था और जैसे ही गंगा मैया का आव्हान करते हुए अपनी कठौती से जल छिड़का, गंगा मैया वहां प्रकट हुई और रैदासजी के आग्रह पर उन्होंने रत्नजड़ित एक और कंगन उस ब्राह्मण को दे दिया। इस प्रकार खुश होकर ब्राह्मण राजा को कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने उसे अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास नहीं होने दिया।
मीराबाई के आमंत्रण पर संत रैदासजी चित्तौड़गढ़ आ गये लेकिन यहां भी उनकी गंगा भक्ति तनिक भी कम नहीं हुई। वहीं पर उनका 120 वर्ष की आयु में निर्वाह हुआ। भारतीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परिवेश में संत रैदासजी गंगा भक्ति इतिहास में एक अमिट आलेख है।

Related Articles

Back to top button
praktijkherstel.nl, | visit this page, | visit this page, | Daftar Unibet99 Slot Sekarang , | bus charter Singapore