आदिवासी अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन क्यों?

ललित गर्ग 
अन्तरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस, विश्व में रहने आदिवासी लोगों के मूलभूत अधिकारों (जल, जंगल, जमीन) को बढ़ावा देने और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। यह दिवस उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो मूल निवासी लोग पर्यावरण संरक्षण, आजादी, महा आंदोलनों, जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था।
‘विश्व आदिवासी दिवस‘ अर्थात विश्व की सभी जनजातियों यानी आदिवासियों का दिवस। आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से यहां रहता आया है। करीब 400 पीढ़ियों पूर्व सभी भारतीय वन में ही रहते थे और वे आदिवसी थे परंतु विकासक्रम के चलते पहले ग्राम बने फिर कस्बे और अंत में नगर, महानगर। यही से विभाजन होना प्रारंभ हुआ। जो वन में रह गए वे वनावासी, जो गांव में रह गए वे ग्रामवासी और जो नगर में चले गए वे नगरवासी कहलाने लगे। भारत में लगभग 25 प्रतिशत बन क्षेत्र है, इसके अधिकांश हिस्से में आदिवासी समुदाय रहता है। लगभग नब्बे प्रतिशत खनिज सम्पदा, प्रमुख औषधियां एवं मूल्यवान खाद्य पदार्थ इन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में हैं। भारत में कुल आबादी का लगभग 11 प्रतिशत आदिवासी समाज है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी जब भी जरूरत होती है, यह समाज देश के लिये हर तरह का बलिदान देने को तत्पर रहता है। फिर क्या कारण है कि इस जीवंत एवं मुख्य समाज को देश की मूल धारा से काटने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं। आजादी के बाद बनी सभी सरकारों ने इस समाज की उपेक्षा की है। यही कारण है कि यह समाज अनेक समस्याओं से घिरा है। अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाते हुए हमें आदिवासी समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने के प्रयासों को नियंत्रित करने पर चिन्तन करना होगा। क्योंकि यह दिवस पूरी दुनिया में आदिवासी जन-जीवन को समर्पित किया गया है, ताकि आदिवासियों के उन्नत, स्वस्थ, समतामूलक एवं खुशहाल जीवन की नयी पगडंडी बने, विचार-चर्चाएं आयोजित हो, सरकारें भी सक्रिय होकर आदिवासी कल्याण की योजनाओं को लागू करें। इस दिवस को आयोजित करने की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि आज भी आदिवासी लोग दुनियाभर में उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, उनको उचित सम्मान एवं उन्नत जीवन नहीं मिल पा रहा है।
वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि आदिवासी समाज की आज कई समस्यायें से घिरा है। हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है, उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती हंै, उनकी माटी एक तरह से सोना उगलती है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। इसीलिये आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों एवं उनकी जमीन पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर है। कम्पनियों ने आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ की है जिससे भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है। आदिवासियों की जमीन पर अब वे खुद मकान बना कर रह रहे हैं, बड़े कारखाने एवं उद्योग स्थापित कर रहे हैं, कृषि के साथ-साथ वे यहाँ व्यवसाय भी कर रहे हैं। भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज आदिवासियों की आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है। माना जाता है कि यही कंपनियां आदिवासी क्षेत्रों में युवाओं को तरह-तरह के प्रलोभन लेकर उन्हें गुमराह कर रही है, अपनी जड़ों से कटने को विवश कर रही है। उनका धर्मान्तरण किया जा रहा है। उन्हें राष्ट्र-विरोधी हरकतों के लिये उकसाया जाता है।
तथाकथित राजनीतिक एवं आर्थिक स्थितियां आदिवासी समाज के अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरा बनती जा रही है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की व्यापक साजिश चल रही है। कतिपय राजनीतिक दल उन्हें वोट बैंक मानती है। वे भी उनको ठगने की कोशिश लगातार कर रही है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। आदिवासियों की ऐसी स्थिति तब है जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी को भारत का मूल निवासी माना है लेकिन आज वे अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं।
आदिवासी समाज की मानवीय गरिमा को प्रतिदिन तार-तार किया जा रहा है। हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य जगहों पर रोजगार के लिए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शामिल नहीं किया जाता है, न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। अर्थात इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है। आदिवासियों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अधिकार भी छिने गए। इतना ही नहीं उन्हें मूल लोकतांत्रिक अधिकार देश की नागरिकता से भी वंचित किया जा रहा है। गुजरात, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा राज्यों में आदिवासी प्रतिशत किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है। इसलिये इन राज्यों में आदिवासी का कन्वर्जन कराया जा रहा है, ताकि राजनीतिक लाभ उठाया जा सके।
आदिवासियों के लिए ऋणग्रस्तता की समस्या सबसे जटिल है जिसके कारण जनजातीय लोग साहूकारों के शोषण का शिकार होते हैं। आदिवासी लोग अपनी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी तथा अपने दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण ऋण लेने को मजबूर होते हैं, जिसके कारण दूसरे लोग इनका फायदा उठाते हैं। किस तरह ठेकेदारों तथा अन्य लोगों से सीधे संपर्क के कारण समस्त भारतीय जनजातीय जनसंख्या ऋण के बोझ से दबी हुई है। देश में ‘गरीबी हटाओ’ जैसे कार्यक्रम भी बने, मगर उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाया। केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने भी गरीबी कम करने के लिए कई योजनाएं चलाई किन्तु उसे भी पूर्ण रूप नहीं दिया जा सका। साथ ही आदिवासियों से जंगलों के वन-उत्पाद संबंधित उनके परम्परागत अधिकार पूरी तरह से छिन लिए गए। आदिवासी समाज से कटकर भारत के विकास की कल्पना करना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा।
एक साजिश के तहत गैर आदिवासी को आदिवासी बनाने से भी अनेक समस्याएं खड़ी हुई है। इससे उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है। जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उन पर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है।
गुजरात में आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिय आदिवासी माटी में जन्मे जैन संत गणि राजेन्द्र विजयजी लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन को उन्नत बनाने, उन क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, संस्कृति-विकास की योजनाओं लागू करने के लिये उनके द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं, इसके लिये उन्होंने सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत अनेक स्तरों पर प्रयास किये हैं। वे रोजगार की दृष्टि से इसी क्षेत्र में व्यापक संभावनाओं को तलाश रहे है। शिक्षा के साथ-साथ नशामुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना उनका ध्येय है। हर आदिवासी अपने अन्दर झांके और अपना स्वयं का निरीक्षण करे।
आज आदिवासी समाज इसलिए खतरे में नहीं है कि सरकारों की उपेक्षाएं बढ़ रही है बल्कि उपेक्षापूर्ण स्थितियां सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि आदिवासी समाज की अपनी ही संस्कृति एवं जीवनशैली के प्रति आस्था कम होती जा रही है। अन्तराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाने की सार्थकता तभी है जब हम इस जीवंत समाज को उसी के परिवेश में उन्नति के नये शिखर दें। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत की परिकल्पना को आदिवासी समाज बहुत ही आशाभरी नजरों से देख रहा है।
प्रेषकः

(ललित गर्ग)
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