अमेरिका में बन्दूक-संस्कृति पर नियंत्रण के प्रयास

Efforts to control gun culture in America

-ः ललित गर्ग :-

हिंसा की बोली बोलने वाला, हिंसा की जमीन में खाद एवं पानी देने वाला, दुनिया में हथियारों की आंधी लाने वाला अमेरिका जब खुद हिंसा का शिकार होने लगा तो उसकी नींद टूटी हैं। अमेरिका की आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी मुश्किल यही रही है कि यहां हिंसा इतनी सहज बन गयी है कि हर बात का जवाब सिर्फ हिंसा की भाषा में ही दिया जाने लगा। वहां हिंसा का परिवेश इतना मजबूत हो गया है कि वहां की बन्दूक-संस्कृति से वहां के लोग अपने ही घर में बहुत असुरक्षित हो गए थे। लंबे समय से बंदूकों की सहज उपलब्धता का खमियाजा उठाने के बाद वहां के लोगों ने अपने स्तर पर इसके खिलाफ मोर्चा खोलना शुरू कर दिया है और राष्ट्रपति जो बाइडेन को हथियारों के दुरुपयोग पर अंकुश से संबंधित कार्यकारी आदेश पर किये हस्ताक्षर करने को विवश होना पड़ा हैं। पिछले साल जून में भारी तादाद में लोगों ने सड़कों पर उतर कर बंदूकों की खरीद-बिक्री से संबंधित कानून को बदलने की मांग की। जरूरत इस बात की है कि इस समस्या के पीड़ितों को राहत देने के साथ-साथ बंदूकों के खरीदार से लेकर इसके निर्माताओं और बेचने वालों पर भी सख्त कानून के दायरे में लाया जाए। अमेरिका की ही तरह पंजाब में पनप रही बन्दूक-संस्कृति को भी नियंत्रित किया जाना जरूरी है।

अमेरिका में आए दिन ऐसी खबरें आती रही कि किसी सिरफिरे ने अपनी बंदूक से कहीं स्कूल में तो कभी बाजार में अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी और उसमें नाहक ही लोग मारे गए। इसके पीछे एक बड़ा कारण वहां आम लोगों के लिए हर तरह के बंदूकों की सहज उपलब्धता है और इन बन्दूकों का उपयोग मामूली बातों और उन्मादग्रस्त होने पर अंधाधुंध गोलीबारी में होता रहा है, जो गहरी चिन्ता का कारण बनता रहा। आम जन-जीवन में किसी सिरफिरे व्यक्ति की सनक से किसी बड़ी अनहोनी का अन्देशा हमेशा वहां बना रहता है, वहां की आस्थाएं एवं निष्ठाएं इतनी जख्मी हो गयी कि विश्वास जैसा सुरक्षा-कवच मनुष्य-मनुष्य के बीच रहा ही नहीं। साफ चेहरों के भीतर कौन कितना बदसूरत एवं उन्मादी मन समेटे है, कहना कठिन है। अमेरिका की हथियारों की होड़ एवं तकनीकीकरण की दौड़ पूरी मानव जाति को ऐसे कोने में धकेल रही है, जहां से लौटना मुश्किल हो गया है। अब तो दुनिया के साथ-साथ अमेरिका स्वयं ही इन हथियारों एवं हिंसक मानसिकता का शिकार है।

अमेरिका दुनिया पर आधिपत्य स्थापित करने एवं अपने शस्त्र कारोबार को पनपाने के लिये जिस अपसंस्कृति को उसने दुनिया में फैलाया है, उससे पूरी मानवता कराह रही है, पीड़ित है। अमेरिका ने नई विश्व व्यवस्था (न्यू वर्ल्ड आर्डर) की बात की है, खुलेपन की बात की है लगता है ”विश्वमानव“ का दम घुट रहा है और घुटन से बाहर आना चाहता है। विडम्बना देखिये कि अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित देश है लेकिन उसके नागरिक सबसे अधिक असुरक्षित और भयभीत नागरिक हैं। वहां की जेलों में आज जितने कैदी हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं। ऐसे कई वाकये हो चुके हैं कि किसी रेस्तरां, होटल या फिर जमावड़े पर अचानक किसी सिरफिरे ने गोलीबारी शुरू कर दी और बड़ी तादाद में लोग मारे गए। 2014 में अमेरिका में हत्या के कुल दर्ज करीब सवा चौदह हजार मामलों में अड़सठ फीसद में बंदूकों का इस्तेमाल किया गया था। खुद सरकार की ओर से कराए गए एक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया था कि अमेरिका में सत्रह साल से कम उम्र के करीब तेरह सौ बच्चे हर साल बंदूक से घायल होते हैं। अमेरिकी प्रशासन को ‘बंदूक संस्कृति’ ही नहीं बल्कि हथियार संस्कृति पर भी अंकुश लगाना होगा, अब तो दुनिया को जीने लायक बनाने में उसे अपनी मानसिकता को बदलना होगा।

कोई घातक हथियार साथ में होने के बाद मामूली बातों पर होने वाले झगड़े या फिर बेवजह ही किसी के उन्माद से ग्रस्त हो जाने पर कैसे नतीजे सामने आ सकते हैं, अमेरिका ने उसे करीब से देखा है, जहां हर साल सैकड़ों लोग इसकी वजह से मारे जाते हैं। किसी भी संवेदनशील समाज को इस स्थिति को एक गंभीर समस्या के रूप में देखना-समझना चाहिए। यह बेवजह नहीं है कि जिस अमेरिका में ज्यादातर परिवारों के पास अलग-अलग तरह की बंदूकें रही हैं, वहां अब इस हथियार की संस्कृति के खिलाफ आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं। यह आवाज उठना बहुत जरूरी था, देर आये दुरस्त आये की कहावत के अनुसार अमेरिका की आंख खुली है तो अमेरिका के साथ दुनिया को एक शांति एवं अहिंसा का सन्देश जायेगा। निश्चित ही अमेरिका में हिंसा की इस संस्कृति पर नियंत्रण नितान्त जरूरी था। क्योंकि अमेरिका आज दुनिया में अपराध का सबसे बड़ा अड्डा है और हिंसा की जो संस्कृति उसने दुनिया में फैलाई, आज वह स्वयं उसका शिकार है।

जाहिर है कि वहां होने वाली गोलीबारी की घटनाएं सैकडों लोगों के प्राण लेती रही है जो इस्लामी आतंकवाद की घटनाएं नहीं होती थी तो फिर यह क्या थी? यह ऐसा सवाल है, जो अमेरिकी सभ्यता को बेनकाब कर देता है। क्या यह अमेरिका की भौतिकतावादी एवं हिंसक संस्कृति की निष्पत्ति है? पीड़ितों के मानसिक आघात और अन्य मुश्किलों को समझते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने मंगलवार को बंदूक के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक पहल की है। इसके तहत बंदूक की बिक्री के दौरान की जाने वाली ‘पृष्ठभूमि जांच’ को बेहतर बनाया जाएगा। इसके जरिए बाइडेन ने मंत्रिमंडल को बंदूक हिंसा से जूझ रहे समुदायों के समर्थन के लिए एक बेहतर सरकारी तंत्र बनाने का निर्देश दिया है। यह छिपा नहीं है कि बिना किसी वजह के की गई गोलीबारी में किसी प्रियजन को गंवाने वालों को किस तरह के मानसिक आघात और अन्य मुश्किलों से जूझना पड़ता है।

जहां सर्वत्र अनैतिकता है, वहां राष्ट्रीय चरित्र कैसे बने?

‘मन जो चाहे वही करो’ की मानसिकता वहां पनपती है जहां इंसानी रिश्तों के मूल्य समाप्त हो चुके होते हैं, जहां व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। ‘मूड ठीक नहीं’ की स्थिति में घटना सिर्फ घटना होती है, वह न सुख देती है और न दुःख। ऐसी स्थिति में आदमी अपनी अनंत शक्तियों को बौना बना देता है। यह दकियानूसी ढंग है भीतर की अस्तव्यस्तता को प्रकट करने का। ऐसे लोगों के पास सही जीने का शिष्ट एवं अहिंसक सलीका नहीं होता। वक्त की पहचान नहीं होती। ऐसे लोगों में मान-मर्यादा, शिष्टाचार, संबंधों की आत्मीयता, शांतिपूर्ण सहजीवन आदि का कोई खास ख्याल नहीं रहता। भौतिक सुख-सुविधाएं ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। अमेरिकी नागरिकों में इस तरह का एकाकीपन उनमें गहरी हताशा, तीव्र आक्रोश और विषैले प्रतिशोध का भाव भर रहा है।

सरकारी बजट पर ‘रेवड़ी कल्चर’ का साया खतरनाक

वे मानसिक तौर पर बीमार हो जाते हैं और अपने पास उपलब्ध खतरनाक एवं घातक बन्दूकों का इस्तेमाल कर हत्याकांड कर बैठते हैं। दरअसल, मामूली बातों पर आवेश में आकर बंदूक चला देने के पीछे हाथ में हथियार होने से जुड़ा मनोविज्ञान काम करता है। यों भी हिंसा के स्वरूप में ज्यादा विकृति और क्रूरता हथियारों की सुलभता पर निर्भर है। हत्या की ऐसी घटनाएं आमतौर पर इसलिए होती हैं कि गुस्से या अपनी कुंठाओं पर काबू नहीं रख पाने वाले किसी उन्मादी व्यक्ति के पास गुस्से में होने के वक्त बंदूक उपलब्ध थी। ऐसे मामले आम हैं, जिनमें आपसी वाद-विवाद में आक्रोश और उत्तेजना के चरम पर पहुंच जाने के बाद भी दो लोगों या पक्षों में सुलह हो जाती है, क्योंकि उनके पास तकरार के वक्त हथियार नहीं रहा होता है।

बुढ़ापे में स्मृतिलोप का अंधेरा परिव्याप्त होने की आशंका

अमेरिका संस्कृतिविहीन देश बनता जा रहा है- भौतिक विकास एवं शस्त्र संस्कृति पर सवार है यह राष्ट्र। वहां के नागरिक अपने पास जितने चाहें, उतने शस्त्र रख सकते हैं। कुछ जगहों पर शस़़्त्रों के लाइसेंस की भी जरुरत नहीं होती। अमेरिका में बहुत कम घर ऐसे हैं, जिनमें बंदूक या पिस्तौल न हो। अमेरिका की यह शस्त्र-संस्कृति उसके जन्म के साथ जुड़ी हुई है। इसी शस्त्र संस्कृति पर वह समृद्ध बना है, दुनिया पर उसने हुकूमत की है। आज वही हिंसक शस्त्र संस्कृति उसके स्वयं के लिये भारी पड़ रही है।

प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 9811051133

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