राष्ट्र का विकास बाधित होगा संसदीय गतिरोध से

Nation's development will be hampered by parliamentary deadlock

Nation's development will be hampered by parliamentary deadlock
Nation’s development will be hampered by parliamentary deadlock

– ललित गर्ग –

संसद की कार्रवाई को बाधित करना एवं संसदीय गतिरोध आमबात हो गयी है। यही स्थिति  संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में देखने को मिल रही है, इस सत्र को शुरू हुए पांच दिन बीत चुके हैं, लेकिन दोनों सदनों में हंगामे और नारेबाजी के अतिरिक्त और कुछ नहीं हुआ है। जहां सत्तापक्ष संसद में अपनी इस मांग पर जोर दे रहा है कि राहुल गांधी ने अपनी लंदन यात्रा के दौरान भारतीय लोकतंत्र के बारे में जो कुछ कहा, उसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए, वहीं कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल अदाणी मामले की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से कराने पर अड़े हुए हैं और संसद नहीं चलने दे रहे हैं।

विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच तकरार और इन स्थितियों से उत्पन्न संसदीय गतिरोध लोकतंत्र की गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा और नारेबाजी की स्थितियां कैसे लोकतांत्रिक कही जा सकती है? कितना दुखद है कि एक दिन भी संसद में ढंग से काम नहीं हो सका है। विवादों का ऐसा सिलसिला छिड़ गया है, जो लगता नहीं कि आसानी से खत्म होगा। विवाद संसद में भी होती हैं और सड़क पर भी। लेकिन संसद को सड़क तो नहीं बनने दिया जा सकता? वैसे, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसे अवसर पहले भी आए हैं, जब परस्पर संघर्ष के तत्व ज्यादा और समन्वय एवं सौहार्द की कोशिशें बहुत कम नजर आई है।

स्पष्ट है कि यदि दोनों पक्ष अपने-अपने रवैये पर अडिग रहते हैं तो संसद का चलना मुश्किल ही होगा। यदि ऐसा होता है तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा। ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है कि बजट को बिना बहस के पारित कराना पड़े। यह ठीक नहीं होगा, लेकिन संसद तभी चल सकती है, जब दोनों पक्ष अपना-अपना हठ छोड़ेंगे। फिलहाल इसके आसार नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि यह तय है कि राहुल गांधी लंदन में दिए गए अपने बयान को लेकर माफी नहीं मांगने वाले। एक ओर जहां मल्लिकार्जुन खरगे यह साफ कर चुके हैं कि राहुल गांधी माफी नहीं मांगने वाले, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के अन्य नेता भी यह सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि उनके नेता ने लंदन में वैसा कुछ कहा ही नहीं, जैसा बताया जा रहा है।

इस तरह की द्वंद्वपूर्ण स्थितियों से तो संसदीय मर्यादाएं बार-बार भंग होती रहेगी एवं संसद में हुड़दंग मचाने, अभद्रता प्रदर्शित करने एवं हिंसक घटनाओं को बल देने के परिदृश्य बार-बार उपस्थित होते रहेंगे। गलत को गलत न मानने की हठ को कैसे स्वीकार्य किया जा सकता है? यह कैसी हठधर्मिता है कि भारतीय लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ करने वाले राहुल के माफी मांगने पर कांग्रेस तैयार नहीं कि उन्होंने कुछ गलत किया है।

संसद का यह सत्र इसलिये भी आक्रामक बना हुआ है कि पक्ष एवं विपक्ष दोनों की ही नजरों में वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव है। इसीलिये इसके आसार नहीं कि राहुल गांधी माफी मांगेंगे, वैसे ही इसके भी कोई संभावना नहीं कि मोदी सरकार अदाणी मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की विपक्ष की मांग मानने के लिए तैयार हो जाएगी। इसका एक कारण तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही छह सदस्यीय समिति के गठन की घोषणा कर चुका है और दूसरा यह कि वित्तीय मामलों में अब तक गठित संयुक्त संसदीय समितियों ने जांच के नाम पर या तो लीपापोती की है या फिर दलगत राजनीति। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अदाणी मामले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की विपक्ष की मांग का मुख्य उद्देश्य इस मामले को अगले आम चुनाव तक जिंदा रखना है।

चूंकि सरकार विपक्ष के इस इरादे को भांप चुकी है, इसलिए वह उसकी मांग पर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं। कैसी विचित्र एवं त्रासद स्थिति है कि सबके सामने देश नहीं, सत्ता का स्वार्थ है। देश को बनाने एवं विकास की रफ्तार देने के लिये बजट का लोकतांत्रिक तरीकों से पारित होना जरूरी है। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा। ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है कि बजट को बिना बहस के पारित कराना पड़े। यह ठीक नहीं होगा, लेकिन संसद तभी चल सकती है, जब दोनों पक्ष अपना-अपना हठ छोड़ेंगे। फिलहाल इसके आसार नहीं दिख रहे हैं।

आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह- भारतीय राजनीति में ऐसे लोग गिनती के मिलेंगे जो इन तीनों स्थितियां से बाहर निकलकर जी रहे हैं। पर जब हम आज राष्ट्र की विधायी संचालन में लगे अगुओं को देखते हैं तो किसी को इनसे मुक्त नहीं पाते। आजादी के बाद सात दशक बीत चुके हैं, लोकतंत्र के सारथियों की परिपक्वता नहीं पनप पा रही हैं, साफ चरित्र जन्म नहीं ले पाया है, लोकतंत्र को हांकने के लिये हम प्रशिक्षित नहीं हो पाये हैं। उसका बीजवपन नहीं हुआ या खाद-पानी का सिंचन नहीं हुआ। आज आग्रह पल रहे हैं-पूर्वाग्रहित के बिना कोई विचार अभिव्यक्ति नहीं और कभी निजी और कभी दल स्वार्थ के लिए दुराग्रही हो जाते हैं। कल्पना सभी रामराज्य की करते हैं पर रचा रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न श्रीकृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला।

विपक्षी दल का अनावश्यक आक्रामकता

विपक्षी दल अनावश्यक आक्रामकता का परिचय देंगे तो सरकार उन्हें उसी की भाषा में जवाब देगी। इसके चलते अब संसद के सत्रों के दौरान कहीं अधिक शोर-शराबा होने लगा हैं। ऐसा होने का सीधा मतलब है कि संसद में विधायी कामकाज कम, हल्ला-गुल्ला ज्यादा होता है। कायदे से इस अप्रिय स्थिति से बचा जाना चाहिए। यह एक बड़ा सच है कि लोकतंत्र एक जटिल व्यवस्था है और इसे बार-बार परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। निश्चित ही, लोकतंत्र पर देश में या देश से बाहर टिप्पणी करते समय व्यापकता में विचार करना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र के किसी भी बड़े नेता की टिप्पणियों में शासन-प्रशासन का इतिहास और भूगोल, भारतीय लोकतंत्र की गरिमा के स्वर होने ही चाहिए। आशा की जाती है कि लोकतंत्र पहले भी बड़ी परीक्षाओं से गुजरकर निखरा है और लोगों को यही उम्मीद होगी कि इस बार भी निखरेगा। लेकिन बड़ा प्रश्न है कि भारतीय लोकतंत्र को हांकने वाले लोग आखिर कब परिवक्व होंगे? कब भारतीय लोकतंत्र इन दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण त्रासदियों से बाहर आयेगा?

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संसदीय लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं

संसदीय लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं हैं, वह पक्ष-विपक्ष की शर्तां से नहीं, आपसी समझबूझ, मूल्यों एवं आपसी सहमति की राजनीति से चलता है। एक तरह से साबित हो गया, भारतीय राजनीति में परस्पर विरोध कितना जड़ एवं अव्यावहारिक है। राजनीति की रफ्तार तेज है, लेकिन कहीं ठहरकर सोचना भी चाहिए कि लोकसभा, राज्यसभा में थोड़ा सा समय विरोध-प्रतिरोध के लिए हो और ज्यादा से ज्यादा समय देश के तेज विकास एवं देश निर्माण की चर्चाओं एवं योजनाओं में लगें।

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राष्ट्र की राह रोकने वाला काम

हमारे राजनेता जब टकराव पर उतरते हैं, तो शायद नहीं सोचते कि देश में क्या संदेश जा रहा है। संसद के इस सत्र में केवल बजट पर ही बहस नहीं होनी है, बल्कि कम से कम तीन दर्जन विधेयक भी पारित होने हैं। इनमें से कई अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयक हैं। यदि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जारी गतिरोध के चलते प्रस्तावित विधेयक पारित नहीं हो पाते तो यह एक तरह से राष्ट्र की राह रोकने वाला काम होगा। उचित यह होगा कि सत्तापक्ष और विपक्ष यह समझें कि संसद में गतिरोध की स्थिति पैदाकर वे जनता को निराश करने का ही काम कर रहे हैं। क्या भारतीय राजनीति में आज इतनी शालीनता भी नहीं बची कि अपनी गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर आगे ऐसी त्रासद घटनाओं के न होने के लिये संकल्पित हो।

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