हिंसक होता राजनीतिक चेहरा लोकतंत्र पर बदनुमा दाग

Violent political face is a bad stain on democracy

Violent political face is a bad stain on democracy

राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को हिंसक प्रतिस्पर्धा में नहीं बदला जा सकता, लोकतंत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण पाठ पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस एवं अन्य राजनीतिक दलों को याद रखने की जरूरत है। जैसाकि पश्चिम बंगाल में इन दिनों पंचायत चुनाव के दौरान व्यापक हिंसा देखने को मिली, इससे पूर्व वर्ष 2013 और 2018 के पंचायत चुनावों में भी ऐसी ही हिंसा सामने आई। 2019 के लोकसभा चुनावों में एवं 2021 के विधानसभा चुनावों में भी व्यापक हिंसा हुई थी। अब पंचायत चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के बाद राजनीतिक दल एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं। राज्य चुनाव आयुक्त भी बेबस बना हुआ इस हिंसा का जिम्मेदार जिला प्रशासन को ठहराकर अपना पल्ला झाड़ना चाहता है।

निश्चित ही हिंसक होता राजनीतिक चेहरा लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग है। आखिर यह किस लोकतंत्र का चेहरा है। इस तरह की हिंसा से कोई जीत भी गया तो वह कितना जीत पाएगा? इस राजनीतिक लड़ाई से जिस तरह का आवेश, भय, संवेदनहीनता, परस्पर द्वेष, नफरत एवं घृणा पैदा हो रही है, क्या उसमें राजनीतिक उद्देश्यों की एवं मूल्यों की हार नहीं है? तृणमूल कांग्रेस को गरीबों की चिंता है या सत्ता की, वहीं भारतीय जनता पार्टी को भारत की अस्मिता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की। इस लड़ाई में जो लोग मर रहे हैं वे गरीब भी हैं और भारतीय भी हैं। इसलिए क्या दोनों का कर्तव्य नहीं है कि इस हिंसक राजनीति के परिणाम के बारे में सोचें।

इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव के दौरान ऐसी हिंसा बेहद गंभीर और चिंताजनक है। खासकर इसलिए भी कि इस तरह की हिंसा की आशंका पहले से जाहिर की जा रही थी और सभी संबंधित एजेंसियों के पास इसे रोकने के लिए योजना बनाने और उस पर सही ढंग से अमल की तैयारी करने का काफी वक्त था। हाईकोर्ट के निर्देश के बावजूद तृणमूल कांग्रेस सरकार और केन्द्रीय सुरक्षा बल यदि समय पर सही ढंग से कदम उठाते तो निश्चित ही इस तरह की हिंसा को रोका जा सकता था। इसमें बरती गई कोताही एवं लापरवाही की उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए कि गड़बड़ी कहां और किस तरह हुई। मगर फिर भी इस मुद्दे को न तो तात्कालिक नजरिये से देखा जा सकता है और न ही महज कानून व्यवस्था की समस्या के रूप में। हिंसा, अराजकता, उन्माद एवं उग्रता इस राज्य के राजनीतिक जीवन का एक तरह से अभिन्न हिस्सा बन गया है। यह चिंता का बड़ा कारण इसलिए भी है कि वर्ष 2024 में आम चुनाव होने हैं।

कोई भी राज्य हो या किसी भी तरह के चुनाव हो, हिंसा को जायज नहीं माना जा सकता। पश्चिम बंगाल में हिंसा का वर्चस्व बढ़ना एक चिंता का बड़ा कारण है। ऐसे तो कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस सत्ता में होने की वजह से उसके द्वारा हिंसा को बल दिया जाना, हिंसा को हथियार बनाना और हिंसक राजनीति पर सत्ता हासिल करने का खेल दुर्भाग्यपूर्ण एवं विसंगतिपूर्ण है। यह लोकतंत्र के हनन की घटना है।

कभी बिहार जैसा राज्य चुनावी हिंसा का पर्याय माना जाता था लेकिन अब वहां हालात बदले और चुनावी हिंसा अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलती है। पर पश्चिम बंगाल में स्थिति उग्र से उग्रत्तर होती जा रही है। चूंकि सत्ता में तृणमूल कांग्रेस है, इसलिए हिंसा रोकना उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है। लेकिन ऐसे हिंसा के मामले में अन्य दलों को भी उनके दायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता। इस तरह की हिंसा की काली छाया न केवल आम जनजीवन को प्रभावित कर रही है बल्कि सरकारी एजेंसियां एवं संवैधानिक संस्थाओं तक पर उसका दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है। स्पष्ट है कि समस्या गहरी है और उसका समाधान भी गंभीरता से होना अपेक्षित है।

पश्चिम बंगाल के राजनीति धरातल ही नहीं बल्कि आम जनजीवन में भी हिंसा की बर्बरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। सत्ता पक्ष एवं विपक्ष एक-दूसरे द्वारा कि गई राजनीतिक हत्याओं का ऐसा हिसाब रखते हैं कि कुछ बकाया नहीं छोड़ते। इस लड़ाई में एक पक्ष दूसरे पक्ष के कार्यकर्ताओं को मारता है तो दूसरा पक्ष पहले पक्ष के कार्यकर्ताओं को मारता है, उससे लड़ाई खत्म नहीं हो जाती बल्कि आगे बढ़ जाती है। दोनों पक्षों ने मरने-मारने वाले लोगांे की फौज खड़ी कर ली है।

पश्चिम बंगाल दोषी और निर्दोषी लोगों के खून की हल्दीघाटी बनी हुई है। वहां लोगों को बंदूक से संदूक तक लाना जटिल होता जा रहा है। वहां लोकतंत्र कुछ तथाकथित नेताओं का बंधुआ बनकर रह गया है। राज्य में राष्ट्रीय मूल्य कमजोर हो रहे हैं, विकास की बात नदारद है, सिर्फ निजी हैसियत को और राजनीतिक वर्चस्व को ऊंचा करना ही महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे हालातों में लोकतंत्र को कैसे जीवंत किया जा सकता है। जनाकांक्षाओं को किनारे किया जा रहा है और विस्मय है कि इस बात को लेकर कोई चिंतित भी नजर नहीं आता। जनादेश और जनापेक्षाओं को ईमानदारी से समझना और आचरण करना यही लोकतांत्रिक कदम है और सफलता इसी कदम से मिलती है। जहां इसके अनुरूप नहीं चला जाता, वहां धोखा है और धोखा देना एक नये राजनीतिक माफिया का रूप बन गया है।

आगामी वर्ष में होने वाले लोकसभा चुनाव एवं इस वर्ष पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों से पूर्व हिंसा की राजनीति पर नियंत्रण किया जाना जरूरी है। तुष्टिकरण हटे और उन्माद भी हटे अगर राजनीतिक हिंसा से लोकतंत्र को चोटिल और घायल करने की घटनाओं को नहीं रोका गया तो यह हम सबका दुर्भाग्य है। हमारा राष्ट्र संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी गणतंत्र राष्ट्र है। इससे हटकर हमारी मान्यताएं, हमारी आस्थाएं, हमारी संस्कृति और हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रह नहीं सकता, हमारा देश एक नहीं रह सकता। अपेक्षा है राजनीतिक के हर स्तर पर दायित्व के साथ आचारसंहिता अवश्य हो। दायित्व बंधन अवश्य लाएं, निरकुंशता नहीं।

आलोचना भी हो, पर स्वस्थ आलोचना जो पक्ष और विपक्ष दोनों को जागरूक रखती है। आज हम अगर दायित्व स्वीकारने वाले नेता एवं सर्वोच्च सत्ताधीशों के लिए एक आचारसंहिता का निर्माण कर सके तो निश्चित ही लोकतांत्रिक ढांचे को कायम रखते हुए एक मजबूत, शुद्ध एवं हिंसामुक्त व्यवस्था के संचालन की प्रक्रिया बना सकते हैं। क्योंकि जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है। काम कम हो, माफ किया जा सकता है, पर आचारहीनता एवं हिंसा तो सोची समझी गलती है, उसे माफ नहीं किया जा सकता।

पश्चिम बंगाल में लगातार लोकतंत्र का रथ कीचड़ में फंसा है। वहां रथ के सारथी उसे कीचड़ से बाहर निकालने का नाटक करते हैं लेकिन वे राजनीतिक आग्रहों और सत्ता की आकांक्षा के कारण ऐसा करने में समर्थ नहीं है। वहां सारथी योग्य नहीं है, उनकी योग्यता के लिए मानक भी निर्धारित नहीं है। ऐसी स्थितियों में जनता को जागरूक होने की अपेक्षा है।

प्रेषकः

(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज,
दिल्ली-110092, मो. 9811051133

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