मानसून सत्र व्यर्थ नहीं, अर्थपूर्ण ढंग से चले

Monsoon session was not a waste, it was meaningful

Monsoon session was not a waste, it was meaningful
Monsoon session was not a waste, it was meaningful

-ः ललित गर्ग:-

मानसून सत्र दोनों सदनों में सुचारुरूप से चले इसके लिये सर्वदलीय बैठक में सहमति भले ही बनी हो, लेकिन अब तक के अनुभव के अनुसार यह सत्र भी हंगामेदार ही होना तय है। भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर देने के लिए विपक्ष ने ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस (इंडिया)’ नाम के नए गठबंधन की घोषणा कर दी है। नए गठबंधन के नेता संसद के मानसून सत्र में सरकार को घेरने की तैयारी में लगे हैं। मानो विपक्षी दलों ने प्रण कर लिया है कि वह इस सत्र को भी सुगम तरीके से नहीं चलने देगा। मानसून सत्र 20 जुलाई से शुरू होने जा रहा है और यह 11 अगस्त को खत्म होगा। इस दौरान संसद के दोनों सदनों की कुल 17 बैठकें रखी गई हैं। एक ओर जहां सत्ता पक्ष अहम विधेयकों को पारित करने की कोशिश में है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष मणिपुर हिंसा, रेल सुरक्षा, महंगाई, यूनिफॉर्म सिविल कोड और अडाणी मामले पर जेपीसी गठित करने की मांग करने में लगा हुआ है। कई और मुद्दों को लेकर भी वह सरकार को घेरने की फिराक में हैं। ऐसे में, विपक्ष की भूमिका देश व सरकार के प्रति अपने कर्तव्य और दायित्व के सही एवं सकारात्मक निर्वहन की होनी अपेक्षित है।

हम पिछले कुछ वर्षों से देख रहे हैं कि किस प्रकार संसद के सत्र छोटे पर छोटे होते जा रहे हैं और साल में संसद बामुश्किल 55 या 56 दिन के लिए ही बैठती है और उसमें भी सार्थक चर्चा होने के स्थान पर सत्ता व विपक्षी खेमों के बीच एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार होती रहती है और भारी शोर-शराबा मचता रहता है या बैठकें बार-बार स्थगित होती रहती हैं। विपक्ष का आक्रामक रूख और हंगामा उचित नहीं है। उसे अपनी छवि सुधारनी चाहिए। हर बार की तरह इस बार भी संसदीय अवरोध का कायम रहता है तो इससे लोकतंत्र कमजोर ही होगा। लोकतंत्र में संसदीय अवरोध जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज का पक्ष एवं विपक्षी नेतृत्व अगर अनभिज्ञ रहता है, तो यह अब तक की हमारी लोकतांत्रिक यात्रा की कमी को ही दर्शाता है। यह स्थिति देश के लिये नुकसानदायी है, इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की काली छाया से मानसून सत्र को बचाना प्राथमिकता होनी चाहिए।
भारत पूरी दुनिया में संसदीय प्रणाली का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और इसके बावजूद इसकी संसद की हालत ऐसी हो गई है कि 17वीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने में अब केवल मुश्किल से नौ महीने ही बचे हैं। इस अवधि में विपक्ष प्रभावी भूमिका में सामने आये, यह जरूरी है। वैसे भी संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का होता है क्योंकि वह अल्पमत में होता है मगर उसी जनता का प्रतिनिधित्व करता है जिसका प्रतिनिधित्व बहुमत का सत्ताधारी दल करता है। अतः विपक्ष द्वारा उठाये गये मुद्दों और विषयों पर विशद चर्चा कराना सत्ताधारी दल का नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है। मगर हम तो देखते आ रहे हैं कि पिछले सत्र में जिस प्रकार एक के बाद एक विधेयक बिना चर्चा के ही संसद के दोनों सदनों के भीतर भारी शोर-शराबे के बीच पारित होते रहे यहां तक कि चालू वित्त वर्ष के बजट को भी बिना किसी चर्चा के ही ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। ये लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धुंधलाने के उपक्रम है।

मानसून सत्र के दौरान सरकारी कार्यों की संभावित सूची में 31 नये विधेयकों को पेश या पारित करने के लिए शामिल किया गया है। इसमें दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन विधेयक 2023 को भी जोड़ा गया है। यह विधेयक संबंधित अध्यादेश का स्थान लेने के लिए रखा जाएगा। आम आदमी पार्टी इस मामले को लेकर सरकार पर निशाना लगा रही है। हम भयंकर गलती कर रहे हैं क्योंकि हम उसी संसद को अप्रासंगिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं जिसके साये में इस देश का पूरी शासन-व्यवस्था चलती है और जिसमें बैठे हुए आम जनता के प्रतिनिधि आम लोगों से ताकत लेकर उसे चलाने की जिम्मेदारी उठाते हैं और इस मुल्क के हर तबके के लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए नीतियां बनाते हैं। भारतीय संविधान के तहत संसद को सार्वभौम इस तरह माना गया है कि इसे नये कानून बनाने का भी अधिकार है, बशर्ते वे कानून संविधान की कसौटी एवं जन-अपेक्षाओं पर खरे उतरते हो। इन कानूनों को पारित करने में सत्ता पक्ष से ज्यादा विपक्ष की भूमिका है, मगर हमने पिछले सत्र में देखा कि विपक्षी सांसदों ने संसद का बहिष्कार करके या उसका अवरोध करके उसको नहीं चलने दिया और पूरा सत्र व्यर्थ ही चला गया।

मानसूत्र सत्र व्यर्थ न जाये, यह पक्ष एवं विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी है। इस सत्र में अहम विधेयक पेश किए जानें हैं, ऐसे में सभी का सहयोग बहुत जरूरी है। सभी दलों को सत्र चलाने में मदद करनी होगी। संसदीय कार्यमन्त्री का मुख्य कार्य विपक्ष के साथ संवाद कायम करके संसदीय कामकाज को सामान्य तरीके से चलाने का होता है। मगर इसके साथ ही दोनों सदनों के सभापतियों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वे संसद की कार्यवाही को चलाने के लिए संसदीय कार्यमन्त्रणा समितियों से लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं की सहयोग एवं सहृदयता प्राप्त करने का प्रयास करें। लेकिन जैसे-जैसे लोकतंत्र के विस्तार के साथ देश की भौतिक अवस्था में भी सकारात्मक बदलाव आया है, उससे तो कल्पना में यही बात रही होगी कि बौद्धिकता का भी स्तर और अभिव्यक्ति की शैली में प्रगतिशीलता और श्रेष्ठता आएगी। लेकिन यथार्थ इससे एकदम भिन्न है। बहस की शैली और तत्त्व दोनों में ही गिरावट आई है। संसदीय बहसें अपने सुनने-देखने वालों की भी रचनात्मकता को कम करने में अधिक कारगर हो रही हैं। यही कारण है कि हल्की, ऊटपटांग, उलाहनापूर्ण, व्यंग्य और अपशब्दों वाली बहसें एवं हंगामें, जिन्हें संक्षेप में अमर्यादित और असंसदीय कह सकते हैं,, जो लोकतंत्र की गरिमा को धूमिल करती है, इन स्थितियों का उभरना एक चिन्तनीय स्थिति है।

दुख-दर्द दूर करने के नाम पर पादरी ने किया कई बार दुष्कर्म

संसद में हम अगर सार्थक बहस या रचनात्मक चर्चा को ही टालने का प्रयास करेंगे तो आम जनता में जनप्रतिनिधियों के बारे में जो सन्देश जायेगा वह संसद की गरिमा के हक में नहीं होगा क्योंकि हर पांच साल बाद तो हर पार्टी का प्रत्याशी जनता से बड़े-बड़े वादे करके ही वोट यह कह कर पाता है कि वह लोकसभा में पहुंच कर आम जनता का दुख-दर्द व उनकी समस्याओं के बारे में चर्चा करेगा और राष्ट्र की नीतियों के निर्माण में अपना योगदान देगा। लेकिन हर सांसद को यह योगदान देने के लिये तत्पर होना चाहिए एवं उनके दलों को भी यह भूमिका निभानी चाहिए। संसदीय अवरोध कोई लोकतांत्रिक तरीका नहीं है, उससे हम प्रतिपल देश की अमूल्य धन-सम्पदा एवं समय-सम्पदा को खोते हैं। जिनकी भरपाई मुश्किल है। इसके साथ ही राजनीतिक मूल्य, भाईचारा, सद्भाव, लोकतंत्र के प्रति निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य भी खो रहे हैं।

राजनीतिक चंदे की पारदर्शी व्यवस्था बनाना जरूरी

विपक्ष हंगामे पर उतारू न होकर सार्थक चर्चा करे, उसके विरोध के स्वरों में देशहित होना चाहिए, स्वहित है। पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही ध्यान रखना चाहिए कि हमारे लोकतन्त्र में संसद के सत्र कोई समारोह नहीं हैं बल्कि हमारी देश-निर्माण की प्रशासनिक व्यवस्था की अन्तरंग प्रणाली हैं क्योंकि संसद केवल वाद-विवाद का प्रतियोगिता स्थल नहीं होती बल्कि लोकहित व राष्ट्रहित में फैसला करने का सबसे ऊंचा मंच होती है। एक प्रश्न है कि यदि संसद ने केवल बिना बहस कराये ही भारी शोर-शराबे के बीच ध्वनिमत से ही विधेयक पारित कराने हैं तो संसद की क्या प्रासंगिकता रहेगी?
प्रेषकः

(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-110092
फोनः 22727486, 9811051133

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