कोरोना को परास्त करने हेतु कठोर होना होगा

ललित गर्ग
कोरोना संक्रमण के तीन लाख से अधिक प्रतिदिन पीड़ितों की भयावहता भारतीयों को न केवल डरा रही है, बल्कि पीड़ित भी कर रही है। कोरोना के शिकार लोगों की तादाद का हर दिन नया आंकड़ा छूता दर्दनाक मंजर किसी बड़ी तबाही से कम नहीं है। पिछले दिनों महाराष्ट्र सहित देश के के कुछ अस्पतालों से विचलित करने वाली कुछ ऐसी तस्वीरें सामने आयी, जिन्हें देखकर समूचा देश दहल गया। कल कहीं हमारी बारी तो नहीं? तय है, दर्दनाक दिन लौट आए हैं, अंधेरा घना है। सम्पूर्ण भारतीयों का जीवन संकट में है। लेकिन विडम्बना देखिये कि जब देश की स्वास्थ्य सेवाएं चैपट हो चुकी है, सरकारें पस्त है, जीवन दांव पर लगा है, तब भी प्रांतों की सरकारें एवं राजनीतिक दल औछी राजनीति कर रहे हैं।
बिगडे़ हालात एवं अनियंत्रित होती परिस्थितियों में सबसे बड़ी जरूरत राजनीति करने की बजाय कोरोना महामारी पर काबू पाने के मिशन में एकजुट होने की है, एक सकारात्मक एवं सर्वमान्य सोच को विकसित करने की है। भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जन-संबोधन में लाॅकडाउन को अन्तिम हथियार के रूप में काम में लेने की बात कहीं, लेकिन त्रासदी बनते एवं मौत का तांडव रचते कोरोना को काबू पाने के लिये कुछ तो कठोर निर्णय लेने ही होंगे, भले ही उससे कुछ समय के लिये अर्थ-व्यवस्था बाधित हो। मुंबई में रात्रि कफ्र्यू लगाते वक्त उद्धव ठाकरे ने कहा था कि हमें इससे भी कड़े कदम उठाने पड़ सकते हैं। वह जैसे लोगों को चेता रहे थे, भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जाने? फिलहाल दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्यों के शहरों में रात्रि कफ्र्यू या साप्ताहिक बंदी का एलान किया गया है।
स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थान बंद कर दिये गये, 10वीं की परीक्षाएं स्थगित कर दी गयी तो 12वीं को कुछ समय के लिये टाल दिया गया, इन स्थितियों पर छात्रों का एक तर्क सामने आया था कि चुनावी रैलियों से अगर कोरोना नहीं फैलता, तो हमारी पढ़ाई से कैसे फैल सकता है? ठीक इसी तरह पंजाब में होटल, रिजॉर्ट और रेस्तरां मालिकों का तर्क भी सामने आया कि- ‘यदि सरकार अपना अस्तित्व बचाने के लिए राजनीतिक रैलियां कर सकती है, तो फिर हम अपना वजूद बचाने के लिए व्यापार क्यों नहीं कर सकते?’ इन तर्कों में वजन है, लेकिन ये जीवनदायी तर्क नहीं है। बड़े शहरों से श्रमिकों का पलायन पुनः शुरू हो गया है। मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली से बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश पहुंचने वाली सभी ट्रेनें खचाखच भरी हैं। जिन्हें जगह नहीं मिलती, वे सड़क परिवहन का सहारा ले रहे हैं। फैक्टरी मालिकों के चेहरों पर हवाइयां उड़ी हैं। उन्हें लगता है कि श्रमिकों के पलायन से उनका उत्पादन फिर से बाधित हो जाएगा। यही नहीं, श्रमबल के साथ बौद्धिकबल एवं कार्यबल के महंगा होने का भी भय सताने लगा है। तय है, महंगाई, बेरोजगारी और बदहाली का दूसरा दौर हमारे दरवाजे खटखटा रहा है। सवाल उठता है कि ऐसे में क्या किया जाए? सरकार ने पाबंदियों के अलावा टीकाकरण अभियान तेज करने का फैसला किया है, पर इसकी अपनी सीमाएं हैं।
इन जटिल एवं हताश माहौल में सरकारों को कोसने से काम नहीं चलेगा, सरकारों के हाथ में भी कोई जादूई चिराग नहीं है। केंद्र की सरकार हो या राज्य सरकारें, सबने मिलकर, जो हो सका, अच्छा किया। भले ही कुछ सरकारों ने इस महामारी एवं असंख्य लोगों की जीवन-रक्षा जैसे मुद्दे में भी राजनीति करने एवं राजनीतिक लाभ तलाशने की कोशिशें की है। जबकि कुछ सरकारों ने राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर मानवीयता का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपनी सारी शक्ति इस महामारी से जन-जन को बचाने एवं उनके उपचार के उपक्रमों में नियोजित कर दी। इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश की योगी सरकार है। उनकी सरकार ने घोषणा कर दी है कि 18 वर्ष से 45 वर्ष तक के लोगों को सरकार अपने चिकित्सा केन्द्रों में मुफ्त वैक्सीन लगावयेगी और राज्य के बाहर से आने वाले प्रवासी मजदूरों का स्वागत भी करेगी परन्तु इसे समस्या का सम्पूर्ण समाधान नहीं माना जा सकता क्योंकि बड़े शहरों से अपनी रोजी- रोटी छोड़ कर उत्तर प्रदेश आने वाले मजदूरों को दैनिक जीवन चलाने के लिए कमाई की जरूरत होगी। अतः योगी सरकार को इन प्रवासी मजदूरों की आर्थिक मदद करने की भी योजना अभी से तैयार कर लेनी चाहिए।
केन्द्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकार की दलील है कि सम्पूर्ण लाॅकडाउन से आर्थिक गतिविधियां ठप्प होने का खतरा है जिससे लाखों लोगों की आजीविका व रोजगार प्रभावित होगा, अतः सरकारें कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए आवश्यक सभी कारगर कदम उठा रही है और कोशिश कर रही है कि संक्रमण कम से कम फैले। प्रशासनिक अधिकारों से लैस सरकार का प्राथमिक दायित्व लोगों की जानमाल की सुरक्षा का बनता है। सरकार का दायित्व यह भी है कि वह मानव-सृष्टि के प्रादुर्भाव से लेकर अब तक के इतिहास के सबसे भयावह संकट से निबटने में कुछ कठोर कदम उठाये। जैसाकि कोरोना दवाइयों एवं उपचार प्रक्रियाओं में घोर आर्थिक अपराध एवं भ्रष्टाचार होने की तस्वीरें सामने आयी है, रेमडेसिविर दवा की कालाबाजारी ने कुछ अधिक ही परेशान किया। आक्सीजन सिलेडरों की उपलब्धता में भी घोर लापरवाही देखने को मिली है, महाराष्ट्र के नासिक में आॅक्सीजन लीक होने एवं 24 कोरोना पीड़ितों की मौत की खबर ने तो लापरवाही की हदें ही पार कर दी है।
इन हालातों में कोरोना मरीजों को तत्काल राहत देने के लिये जरूरी है कि देश में सभी कोरोना उपचार की आर्थिक गतिविधियों को कुछ समय के लिये बन्द कर दिया जाये और सरकारी के साथ गैर-सरकारी अस्पतालों को कोरोना उपचार के लिये निःशुल्क कर दिया जाये। सरकारी-गैरसरकारी अस्पतालों में मंत्रियों एवं राजनेताओं के प्रभाव से उपचार को भी नियंत्रित करने की व्यवस्था हो। अन्यथा सारा उपचार वीवीआईपी केन्द्रित होने से अफरा-तफरी एवं अराजकता का माहौल बनने से रोकना संभव नहीं होगा। लोकतन्त्र में लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है क्योंकि वह लोगों की सरकार ही होती है। इसके साथ ही सरकारों की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वे कोरोना के खिलाफ उठाये जाने वाले कदमों और लोगों की आजीविका से जुड़े मुद्दों का भी ध्यान रखें और इन दोनों के बीच इस प्रकार सामंजस्य बनायें जिससे आम जनता का दैनिक जीवन भी चलता रहे और कोरोना पर नियन्त्रण भी पाया जा सके।
केन्द्र सरकार एवं प्रांतों की सरकारों के मंत्री एवं राजनेता एक-दूसरे पर आरोपों की बौछार से बाज नहीं आ रहे, यह बड़ी विडम्बना है। कोरोना के टीकों के वितरण पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यही वजह है कि गुरुवार की शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कमान संभाल ली। उन्होंने मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की, पर क्या इससे राजनीति खत्म, काम शुरू का दौर आरंभ हो सकेगा? जनता को भी जागना होगा, याद रखिए, यदि कोरोना से बचना है, तो हमें मास्क, शारीरिक दूरी, स्वच्छता और संतुलित खान-पान का ख्याल रखना ही होगा। यदि आप इसके लिए भी सरकारी निर्देशों-बंदिशों या पुलिस के डंडे की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो गलती कर रहे हैं।
यह सही है कि देश के आठ राज्यों से 80 प्रतिशत मरीज आते हैं, पर यह भी सच है कि जब हवाई, रेल और सड़क यातायात जारी हों, तब वहां से संक्रमण के अन्य जगह फैलने की आशंका से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिये कुछ समय के लिये कोरोना फैलाने से जुड़ी सभी संभावनाओं पर विराम लगाना ही होगा। हमारे लिये एक सबक है कि पिछले वर्ष वुहान को अगर समय रहते अंतरराष्ट्रीय हवाई उड़ानों से अलग-थलग कर दिया गया होता, तो दुनिया इस महासंकट में न फंसती। क्या अपने देश में भी कुछ दिनों के लिये यात्रागत निषेध लागू किए जाएंगे? सरकारें चिंतित हैं, पर उनकी मजबूरी है। पिछले वर्ष के 68 दिन लंबे लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। अब अगर दोबारा लंबा लॉकडाउन लगा, तो हालात और दुरूह हो सकते हैं। भारत के सामने ऐसी अनेक चुनौतियां हंै, लेकिन इन चुनौतियांे से पार पाते हुए भारत को अब इस महासंकट से बचाने के लिये राजनीतिक-स्वार्थों से ऊपर उठना ही होगा, मानवीयता से चीजों को देखना होगा औा कठोर निर्णय लेने ही होंगे। ऐसा क्या हुआ कि एक वर्ष पहले ही स्थितियों की तुलना में कोरोना अधिक भयावह एवं जानलेवा होने के बावजूद कठोर निर्णय लेने से सरकारें बच रही है?

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